कोरबा : कोरबा जिला देश की ऊर्जा राजधानी के रूप में जाना जाता है। कोयले के भंडार और विशाल खदानों के कारण यह क्षेत्र औद्योगिक विकास का केंद्र बन चुका है। लेकिन इसी विकास की आड़ में एक ऐसी सच्चाई छिपी है, जो कोरबा की जमीन से जुड़ी हजारों जिंदगियों को भीतर से झकझोर रही है।
कोयला उत्पादन और खदान विस्तार परियोजनाओं के
चलते विस्थापित हुए परिवार वर्षों से अपने अधिकारों और सम्मान के लिए संघर्ष कर रहे हैं। इन्हीं आवाज़ों को केंद्र में लाते हुए छत्तीसगढ़ के पूर्व राजस्व मंत्री जयसिंह अग्रवाल ने भारत सरकार के कोयला मंत्री जी. किशन रेड्डी को एक विस्तारपूर्ण पत्र लिखा है, जिसमें उन्होंने एसईसीएल प्रबंधन की कार्यशैली, विस्थापित परिवारों की उपेक्षा और खदान श्रमिकों की
बदतर स्थिति पर गंभीर चिंता व्यक्त की है।
पूर्व मंत्री ने लिखा है कि हाल ही में जब कोयला मंत्री गेवरा विस्तार परियोजना के निरीक्षण के लिए कोरबा पहुंचे, तब प्रबंधन ने केवल कोयला उत्पादन की सफलता और आंकड़ों का उजला पक्ष प्रस्तुत किया। उन्हें यह नहीं बताया गया कि जिन ज़मीनों पर खनन हो रहा है, वे कभी स्थानीय किसानों की थीं, जिन्हें विकास के नाम पर उजाड़ दिया गया और अब वे लोग बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित हैं। न तो उन्हें समुचित मुआवजा मिला, न ही पुनर्वास की प्रभावी
योजना,और न ही योग्य युवाओं को रोजगार का अवसर।
पूर्व मंत्री का यह पत्र न केवल स्थानीय प्रशासन की विफलता को उजागर करता है, बल्कि एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक संकट की ओर भी संकेत करता है। कोरबा, दीपका, कुसमुण्डा और मानिकपुर कोरबा जैसी खदानों के लिए अधिग्रहित की गई भूमि के मूल निवासियों को आज भी आश्वासनों की भूलभुलैया में भटकने को विवश किया जा रहा है। बार-बार बैठकें
होती हैं, वादे किए जाते हैं, लेकिन ज़मीन पर कुछ नहीं बदलता। इस पत्र में उन्होंने स्पष्ट कहा है कि ये विस्थापित परिवार कोई भीख नहीं मांग रहे, वे अपने हक की मांग कर रहे हैं।
जयसिंह अग्रवाल ने कोयला मंत्री से यह भी अपील की है कि वे इस गंभीर मानवीय संकट को केवल कागजों और रिपोर्टों तक सीमित न रखें, बल्कि व्यक्तिगत रुचि लेकर एक निर्धारित समयसीमा में इन समस्याओं का समाधान सुनिश्चित करें। उन्होंने चेताया है कि यदि समय रहते इन परिवारों को न्याय नहीं मिला, तो स्थिति
और जटिल हो सकती है। आंदोलन और असंतोष की चिंगारी को रोका नहीं गया, तो यह औद्योगिक वातावरण के लिए भी नुकसानदायक होगा ।
पत्र का एक और महत्वपूर्ण पक्ष है खदानों में कार्यरत मजदूरों की स्थिति। ये लोग दिन-रात खतरनाक परिस्थितियों में श्रम करके कोयला उत्पादन के लक्ष्य को पूरा करते हैं, लेकिन उनकी कॉलोनियों में जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं का घोर अभाव है। टूटे मकान, कचरे के ढेर, बदहाल सड़कें और पानी का
गहराता संकट ये सभी संकेत हैं उस सामाजिक उपेक्षा के, जो खनन के पीछे छिपी रहती है।
पूर्व मंत्री ने कोयला मंत्री को यह भी याद दिलाया कि
कोरबा जिला देश में सर्वाधिक कोयला राजस्व देता है, ऐसे में वित्तीय संसाधनों की कमी का तर्क स्वीकार्य नहीं हो सकता।
यह पत्र केवल एक राजनेता का औपचारिक ज्ञापन नहीं है, बल्कि एक जिम्मेदार समाज के प्रतिनिधि की पुकार है। यह उस ऊर्जा न्याय की बात करता है, जो विकास की प्रक्रिया में सबसे अधिक प्रभावित होने वाले समुदायों को केंद्र में रखता है। कोरबा की यह कहानी केवल भारत की नहीं, बल्कि उन सभी देशों की भी है जहां खनिज संसाधनों का दोहन स्थानीय समुदायों की कीमत पर होता है।
यह सवाल अब वैश्विक बन चुका है कि क्या ऊर्जा उत्पादन का लक्ष्य केवल आंकड़ों और औद्योगिक उपलब्धियों में नापा जाएगा, या फिर उसकी सामाजिक लागत को भी उतनी ही गंभीरता से समझा जाएगा। यदि कोरबा के विस्थापित परिवारों को उनका हक नहीं मिला,तो यह केवल एक प्रशासनिक विफलता नहीं होगी, बल्कि विकास की उस अवधारणा की असफलता होगी, जो इंसानों को पीछे छोड़कर आगे बढ़ती है।