सूरज की पहली किरणें जैसे ही पहाड़ियों से उतरकर धरती को छूने लगीं, गाँव की पगडंडियों पर हल्की धूल उड़ने लगी। सुदर्शन, बाईस साल का एक युवक, पास की पहाड़ी पर बैठा दूर तक फैले खेतों और झोपड़ियों को निहार रहा था। यह वही गाँव था जहाँ उसकी जड़ें थीं, पर आज उसका मन कुछ बेचैन था। वह अपने गाँव से गहरा जुड़ा था, फिर भी आँखें अब किसी और दिशा में देख रही थीं—शहर की ओर।
गाँव में जीवन सरल था, लेकिन सीमाओं से बंधा। खेती अब मुश्किल होती जा रही थी—बेमौसम बारिश, सूखे खेत और घटती उपज ने परिवार की रीढ़ ही तोड़ दी थी। स्कूल तो था, पर वहाँ सपनों की कोई उड़ान नहीं थी। सुदर्शन जानता था कि यदि वह कुछ बड़ा करना चाहता है, तो उसे अपनी सीमाओं से बाहर निकलना होगा।
“शहर बहुत बदल देगा तुझे,” दादी ने कहा था। “वहाँ न अपनापन मिलेगा, न हमारी तरह के लोग।” पर सुदर्शन को यक़ीन था कि अगर कहीं उसके सपनों की ज़मीन है, तो वो शहर ही है।
कुछ ही दिनों में, वह गाँव छोड़कर चल पड़ा। एक छोटा सा बैग, और दिल में ढेरों सवाल। ट्रेन की खिड़की से खेत, पगडंडियाँ और मिट्टी की महक पीछे छूटती गईं। सामने था एक तेज़, अजनबी शहर—ऊँची इमारतें, शोर और रफ्तार से भरी सड़कें।
पहले दिन ही शहर ने उसे अपनी सच्चाई से मिला दिया। लोगों की भीड़ में वह खुद को एकदम अकेला महसूस कर रहा था। नौकरी की तलाश में वह एक से दूसरी कंपनी जाता रहा, लेकिन हर जगह से एक ही जवाब मिला—”अनुभव नहीं है।”
धीरे-धीरे पैसे खत्म होने लगे। एक रात फुटपाथ पर बैठा, वह गाँव की यादों में खो गया—माँ के हाथों का खाना, मिट्टी की सौंधी खुशबू, और दोस्तों की हँसी। उसने खुद से पूछा, “क्या लौट जाना चाहिए?” पर जवाब साफ था—”नहीं।”
एक दिन उसे एक छोटे कारखाने में सहायक की नौकरी मिल गई। काम कठिन था, पर उसने हार नहीं मानी। हर सुबह जल्दी उठकर काम पर जाता और खाली वक्त में शहर को समझने की कोशिश करता। वह जान गया था कि यहाँ सिर्फ मेहनत नहीं, सही दिशा भी ज़रूरी है।
उसे कुछ ऐसे दोस्त मिले जो उसी की तरह छोटे कस्बों और गाँवों से आए थे। उनके साथ उसने सीखा कि शहर को समझने के लिए धैर्य, विश्वास और लगातार सीखते रहना पड़ता है।
फिर एक दिन उसे एक योजना के बारे में पता चला, जिसमें ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षित कर नौकरी दी जाती थी। उसने उस मौके को थाम लिया। प्रशिक्षण के बाद उसे एक नई नौकरी मिली—पहली बार शहर ने उसे अपनाया था।
समय बीतता गया। अब सुदर्शन उस कारखाने में वरिष्ठ कर्मचारी था। उसने शहर में एक सहायता केंद्र भी शुरू किया, जहाँ वह गाँव से आए युवाओं को मार्गदर्शन देता था—क्योंकि वह जानता था कि शुरुआत में क्या-क्या मुश्किलें आती हैं।
कई सालों बाद, जब वह गाँव लौटा, तो उसकी आँखों में आत्मविश्वास था। लोग गर्व से उसकी ओर देख रहे थे। अब वह वही सुदर्शन नहीं था—अब वह उन हज़ारों युवाओं की उम्मीद बन चुका था, जो सीमाओं से बाहर निकलकर कुछ कर दिखाना चाहते हैं।
शहर ने उसे सिखाया कि रास्ते कठिन होंगे, लेकिन अगर इरादे मजबूत हों तो सपने कभी बेगाने नहीं होते। “शहर के सीने में सपने” अब सिर्फ एक कहानी नहीं, एक प्रेरणा बन गई थी।